Tuesday, September 25, 2007

दल-dal

ऐसे दलदल मे मे फसती जा रही हूँ
जिसमे ना डूब रही हूँ
और ना ही निकल पा रही हूँ।
असहज सी होती जा रही है ज़िन्दगी
देखती हूँ आकाश कि ओर
शायद कोई आशा कि किरण दिख जाए
पकड़ ले कोई हाथ मेरा
जीवन को आधार मिल जाए।
कही भी जाऊ ,कुछ भी करूं
तुम सामने से ओझल होते नही
कैसे अपने आप को समझाऊ
वो मेरा है ही नही
शायद मैं ही नही
तुम्हारे लायक
और क्या कहूँ
भूल नही पाती हूँ तुम्हे
एक छड के लिए भी
वो पल जो हमने साथ बिताये
वो खट्टी मीठी यादें
क्या इसी कशमकश मे जीते रहेंगे हम
जीवन यूं ही दल- दल मे फंसी रह जाएगी।
निवेदिता shuklaa

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